November 26, 2008

ईंधन....


अभी-अभी एक दोस्त ने भेजी है...बचपन में खेल खेलते वक्त दोस्तों से होने वाले झगड़े याद आ गए...पता नहीं उनमें से कौन कहां है। किसी की भी खबर नहीं। कोई मिल भी जाए तो पहचाना तक नहीं जाएगा। मेरा बचपन तो खैर गांव में नहीं समरहिल (शिमला) में बीता है। घर रेलवे स्टेशन के पास था। इसलिए खेलने स्टेशन पर ही जाया करते थे...रेल की पटरियों और 100 नंबर सुरंग (समरहिल स्टेशन की सुरंग) में । मैं आज भी हर तीन या छह महीनो में समरहिल जाती हूं। वहां के रेलवे स्टेशन पर घंटों बैठकर वापिस आ जाती हूं। पता नहीं क्या है जो वहां खींच ले जाता है । जब एक तरह की चुप्पी..सन्नाटे में जाने को मन करता है जो सुकून दे तो समरहिल ही जाती हूं । वहां जाने से मन कभी नहीं भर सकता है। लौटते वक्त मुड़-मुड़ कर स्टेशन को देखना..सच में मां बनने के बाद आज भी वहां जाने पर लगता है कि मैं छोटी से नीले रंग की फ्रॉक पहन कर 'गागे' 'दिनेश', 'रेनू', 'रेखा' के पीछे भाग रही हूं...भागते-भागते सुरंग में घुस जाती हूं..जहां मेरी आवाज गूंजने लगती है...फिर सुरंग के काले अंधेरे से डरकर मैं वहां से बाहर निकल आती हूं..गागा मुझे मनाने के लिए खेलने के लिए अपनी गाड़ी दे देता है। सब कुछ आज भी मंदिर की घंटियों की तरह कानों गूंजता हैं।

ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!

-- गुलज़ार

November 17, 2008

दिल्ली में दान


दिल्ली में दान..

लगभग एक महीने से ज्यादा होने को आया मुझे दिल्ली में। यहां की दौड़ती-भागती जिंदगी की अपने शहर चंडीगढ़ से तुलना करने के कोई न कोई मौका मिल जाता है। मयूर विहार समाचार अपार्टमेंट के पास की मार्केट में एक छोटा सा ढाबा है। बिना छत्त के। बहुत छोटी से साफ-सुथरी रेहड़ी पर रोज पांच सब्जियां बनाता है राजकुमार। साथ में तंदूर की कड़क रोटी की बजाए मुलायम और फूली हुई तवे की चपाती । इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लड़के-लड़कियां और वह लोग जिनके घर चूल्हा-चौंका नहीं है ,यहीं खाना खाते हैं। राजकुमार को मेरे आने का खासतौर पर इंतजार रहता है। चूंकि वह पंजाबी है। लुधियाना का रहने वाला। इसलिए पंजाबी में अपने घर और कारोबार के रोनेधोने मुझे सुनाकर काफी राहत सी महसूस करता है। फिर समय मिले तो लुधियाना की तंग गलियों,स्वेटर, बिजनेस और वहां के गोटा-किनारी की बातें भी कर लेता है। बातों-बातों में साग और मक्की की रोटी और अमृतसरी वड़ियों का स्वाद भी याद दिला देता है। साथ की साथ छोटू को जूठे बर्तनों पर तेज-तेज हाथ चलाने के लिए भी कहता है।

आज उसने मुझसे कहा कि 'मटर-पनीर खाओगे?' मैंने यह कहकर मना कर दिया कि मैं रात को हल्का खाना ही खाती हूं। मैंने उससे पूछा कि क्या बात है आज मटर-पनीर क्यों बनाया है? तो कहने लगा कि 'एक अपार्टमेंट में बड़े बाबू जी रहते हैं न अपने माता-पिता की याद में दान करवा रहे हैं। उन्होंने मुझे यह कहकर पैसे दे दिए कि लोगों को खाना खिला देना।' अब बेचारा राजकुमार परेशान है दान के इस तरीके से कि किसे खाना खिलाए किसी न खिलाए।

अगर इसे कुछ हो गया तो



'अगर इसे कुछ हो गया तो..'

उस दिन उसकी बीवी को मिरगी का दौरा पड़ा था। डॉक्टरों के मुंह से यह सुनकर वह परेशान हो गया। बीवी की बीमारी की चिंता उसे घुन की तरह खाने लगी। अंदर ही अंदर वह खोखला हो चुका था। थक चुका था यह सोचकर कि अगर उसकी बीवी को कुछ हो गया तो...। उसने अपनी बीवी को नहीं बताया कि उसे मिरगी का दौरा पड़ा था। कह दिया कि नर्वस सिस्टम थोड़ा कमजोर है, ठीक होने में समय लगेगा। कुछ महीनों बाद उसकी अपनी तबीयत खराब हुई तो उसे डॉक्टर के पास ले जाया गया। जांच करने पर पता लगा कि उसे दिल की बीमारी है। उसकी बीवी ने उसे बताया कि उसका ब्लडप्रैशर लो हो गया था। बीवी की चिंता ने उसे दिल का रोगी बना दिया। पति के बालों में उंगलियां चलाते हुए वह उसे निहारती रही। दोनों एक-दूसरे को देखने लगे । दोनों की आंखों में कई सवाल तैर रहे थे । एक दूसरे कि बीमारी के बारे में तो पता है इन्हें लेकिन अपनी-अपनी बीमारी से दोनों ही अनजान हैं। दोनों सोच रहे हैं कि 'अगर इसे कुछ हो गया तो....'