आतंकवाद के खिलाफ मुंबई समेत देश भर में आम आदमी से लेकर फिल्मी सितारे तक सड़कों पर हैं। शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता पर केरल के मुख्यमंत्री की शर्मनाक टिप्पणी से तो देशवासी तिलमिला कर रह गए हैं। नेताओं के खिलाफ जनता का खून तो खौल रहा है लेकिन कब तक? दो दिन... चार दिन... महीना... दो महीना... सड़कों पर मौजूद ये जमावड़ा आंदोलन में बदलेगा, इसमें संदेह है। और वो भी ऐसा आंदोलन जो इस जनता की तकदीर बदल सके। रोजी-रोटी की जरूरतें जनसैलाब के गुस्से पर बर्फ की परत बनकर जम जाएगी। टीवी चैनलों पर आतंकवाद के खिलाफ बयान दे रही राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के उस बयान को हम भूल चुके हैं जो उन्होंने जयपुर धमाकों के बाद दिया था। भूल गए हैं न आप? पहले तो महारानी साहिबा रात को किसी को मिली ही नहीं। जनता उन्हें ढूंढती रही। जब मिलीं, तो मोहतरमा कहती हैं कि 'मुझे दुख है कि धमाकों में छोटे-छोटे लोग मारे गए'... जनता ने बवाल मचाया... अखबारों की सुर्खियां बनीं, लेकिन क्या हुआ? कुछ नहीं। किसी ने इन वसुंधराओं, नकवियों और अच्युतानंदनों की जुबान पर लगाम नहीं कसी... कस भी नहीं सकती... जब जबान पर लगाने का मौका आता है तो यही जनता अपनी पूरी बेवकूफी के साथ उन्हीं को अपना मत और मति दोनों दे आती है...
जो घर से मरने के लिए निकलता है दुनिया उससे डरती है। आतंकी हमेशा मरने के लिए निकलता है। कहीं न कहीं तो उनके जुनून के बारे में सोचकर भी हैरत होती है कि ऐसा जुनून भी क्या कि जब जीवन की समझ आने लगे तो सिर पर कफन बांध मौत बांटने और खुद भी उसका शिकार होने के लिए निकल पड़ते हैं यह । सोचकर देखें कि अगर आतंकियों के दिलों में तबाही का इतना तेजाब और जुनून हो सकता है तो हमारे दिलों में इन हिजड़े नेताओं की जुबान नोचने की हिम्मत क्यों नहीं? कैसे उस शख्स ने शहीद के परिवार से माफी तक मांगने से साफ इनकार कर दिया? जबकि वो भी जानता है कि उसी के वोट की बदौलत वो इस कुर्सी पर विराजमान है... इस देश की जनता को 20-20 साल के छोकरे छकाकर चले गए... क्या करोड़ों की आबादी में कुछ हजार भी ऐसे नहीं जो पहले इन हिजड़ों की सुध लें, जिनकी नाकामी सबके सामने है... जिनकी बेशर्मी सबके सामने है और जिनकी गंदी जुबान भी सब सुन रहे हैं... जिन्होंने उन्हें ये कुर्सी सौंपी है, वो इस वादे के साथ सौंपी है कि जब चाहेंगे वो ले भी लेंगे...लेकिन नहीं, शायद हमारा ही खून जम गया है...