November 09, 2011

इस कोठे पर भीड़ है पर रौनक नहीं....

इस कोठे पर भीड़ है पर रौनक नहीं....
आज तक तवायफों के कोठे फिल्मों में ही देखे हैं। .रौनक की गोद में बसे कोठे और हुस्न..जवानी..जेवर और चिरागों की रोशनी में नहाई उनकी बैठकें। दिल्ली भी उस कोठे की तरह लगती है। दे तो बहुत कुछ (पैसा) रही है लेकिन यह हमेशा के लिए अपनी नहीं हो सकती। चंडीगढ़ या शिमला (होमटाउन) लौटने का मन तो करता है लेकिन लौट नहीं पा रही । दिल्हाली का शोर कानों में ऐसा घुल गया है कि चंडीगढ़ और शिमला का सुकून भरा वातावरण चार दिन के बाद काटने को आता है। यहां के कोठे पर शोहरत, पैसा, चकाचौंध और नौकरी है जो बदले में हमें जल्दी बूढ़ा कर रही है। जिसकी हम हर दिन बड़ी कीमत चुका रहे हैं। इसने कहीं का छोड़ा भी तो नहीं। इसकी गिरफ्त से छूट भी नहीं पा रही। लेकिन कुछ तो ऐसा है इस कोठे पर जो नहीं है। वो जो हमारे शहरों (सभी के होमटाउन या गांव) में था। इसके भौतिकवादी सुखों और चकाचौंध में सुकून होता तो गप्पे मारने और पेट पकड़ कर हंसने के लिए अपने शहर की और पुराने दोस्तों की अड्डाबाजी याद न आती। कुछ खलता है यहां..जो लगता है कि नहीं है। वो जो पहले था, हमारे शहरों में, हमारे गांव में, हमारे मोहल्ले में..हमारे घर की गली के चौराहे पर..हमारे घर के नुक्कड़ वाली समोसों की दुकान पर ,वो जो मेक्डोनल्ड्स, पिज्जा हट्ट, बरिस्ता या कॉफी कैफे डे में नहीं है। वो जो घर के पास वाले छोटे से बाजार में था लेकिन कनॉट प्लेस या बिग बाजार में नहीं है। वो मजा जो स्कूल वाली टूटे मरगाड वाली आवाज करती साइकल में था, आज कार में नहीं है। वो जो एक बैडरुम वाले शिमला के छोटे से घर में था, आज बड़े से अपार्टमेंट वाले घर में नहीं है। वो जो उन दिनों की रविवार की छुट्टी वाले दिन में था अब तो पता ही नहीं लगता कि रविवार कब आया और चला गया। शाम के आंगन में उतरते वक्त वो जो बच्चों का शोर मोहल्लों में था वो अब अर्पाटमेंट में नहीं होता। यहां की शामें सुनसान रहती हैं। क्योंकि अब बच्चे चोर-सिपाही, ऊंच-नीच का पापड़ा, पिट्ठू गरम,लंगड़ी टांग, घर-घर, मिट्टी के बर्तन बनाना, आंखों पर पट्टी बांधकर एक-दूसरे को ढूंढना जैसे खेल नहीं खेलते। नहीं खेलते तो शोर भी नहीं होता..शोर नहीं होता तो कोई वर्मा अंकल उन्हें डांटते भी नहीं हैं। इस कोठे पर भीड़ तो बहुत है लेकिन रौनक नहीं है। दीवाली बीत भी गई। पता नहीं लगा। हमारे घरों में महीना भर पहले तैयारियां शुरू हो जाती थी। व्हाइट वाश होता ,हम पड़ोसियों के घरों में हुई ताजा व्हाइट वॉश देखने जाते कि फलां ने कौन सा रंग करवाया है. फिर व्हाइट वाश करने वाला आता। सामान लिखवाता। डैडी बाजार से सामान लाते। कई बार व्हाइट वॉश वाले को बताते कि भइया समोसम इतना नहीं इतना डलेगा...जहां-जहां सफेदी होनी है उसमें नील कितना घुलेगा। फिर बीच-बीच में चाय के दौर चलते। सारा सामान एक कमरे में भर दिया जाता। कुछ सामान पड़ोसियों के यहां भी रखा जाता। कभी-कभी पड़ोसियों के घर से भी चाय-पानी आ जाता। व्हाइट वॉश के बाद सज-सज कर बैठ कर देखते थे हम कि आहा..घर नया हो गया है। उन दिनों घर में व्हाइट वॉश और छोटे-छोटे सामान की इतनी खुशी होती थी जितनी आज नए फ्लैट या प्लॉट खरीदने पर भी नहीं होती। पहले छोटी-छोटी चीजें खुशियां देती थी आज बड़ी चीजें और उपलबिधयां भी खुशी नहीं देती। पहले घर में कोई नई चीज आती तो सामने वाली या नीचे वाली आंटी देखने आती..चर्चा होती अब बगल वाले घर में कोई मर भी जाए तो कई दिन बाद पता ललगता है। पहले जब हमारा स्कूल का नतीजा आना होता था तो पड़ोस वाली आंटी भी चिंता से इंतजार करती थी अब मामा-चाचा तक को यह तक खबर नहीं की हमने कितनी पढ़ाई कर ली। हम कहां नौकरी कर रहे हैं। अब हम खुश नहीं रह पाते हैं। छोटी - छोटी खुशीयां हमारे छोटे-छोटे शहरों में आज भी हैं। वे खुशियां हमारे बड़े शहरों में आ जाने से अकेली हो गई हैं क्योंकि हम वहां नहीं हैं।

2 comments:

geetashree said...

मनीषा
तुमने हमारी दुखती रग छू दी है। बिल्कुल सच बयां किया है। हमें अब इन चीजो की आदत तो पड़ गई है लेकिन कसक जाती नहीं। अच्छा आलेख..

गीताश्री

सुभाष नीरव said...

मनीषा जी, आपकी यह पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी। पुराने दिनों में ले गई। गली -मोहल्ले में बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खेलों के नाम भी अब सुनने को नहीं मिलते… सच ही, बहुत सार्थक पोस्ट है आपकी…